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भाद्रपद अमावस्या: कुशोत्पाटिनी, पिठौरी एवं पितृ-कर्म का प्रामाणिक शास्त्रीय विवेचन

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भाद्रपद अमावस्या: कुशोत्पाटिनी, पिठौरी एवं पितृ-कर्म का प्रामाणिक शास्त्रीय विवेचन

I. भाद्रपद अमावस्या का त्रिविध माहात्म्य

भारतीय पञ्चाङ्ग में भाद्रपद मास की अमावस्या तिथि एक असाधारण महत्त्व रखती है। यह केवल एक अमावस्या नहीं, अपितु तीन प्रमुख आध्यात्मिक धाराओं का संगम है, जो इसे वर्ष की अन्य अमावस्याओं से पृथक् एवं विशिष्ट बनाती है। यह तिथि एक ही समय में तीन भिन्न-भिन्न नामों और उद्देश्यों से जानी जाती है: कुशोत्पाटिनी (या कुशाग्रहणी) अमावस्या, पिठौरी अमावस्या तथा पितृ-कर्म हेतु महत्त्वपूर्ण अमावस्या । यह त्रिविध पहचान इस दिन को हिन्दू गृहस्थ के लिए एक समग्र अनुष्ठानिक पर्व के रूप में स्थापित करती है, जहाँ वह आगामी धार्मिक कृत्यों की तैयारी करता है, अपनी संतति के कल्याण के लिए देवियों का पूजन करता है और अपने पूर्वजों के प्रति अपने दायित्वों का निर्वहन करता है।

यह तिथि श्रावण मास के भक्तिपूर्ण उत्सवों के समापन और पितृपक्ष के गम्भीर एवं श्रद्धामय पखवाड़े के आरम्भ के मध्य एक सेतु का कार्य करती है। इसका एक स्वरूप, 'कुशोत्पाटिनी', अनुष्ठानों की शुचिता एवं प्रामाणिकता सुनिश्चित करने के लिए है, क्योंकि इस दिन वर्ष भर के श्राद्ध, तर्पण एवं अन्य देव-कार्यों हेतु पवित्र 'कुशा' नामक घास का संग्रह किया जाता है । इसका दूसरा स्वरूप, 'पिठौरी', पूर्णतः मातृत्व एवं संतान-कल्याण को समर्पित है, जिसमें माताएँ अपनी संतानों की दीर्घायु और आरोग्य के लिए माँ दुर्गा एवं चौंसठ योगिनियों का विशेष पूजन करती हैं । इसका तीसरा और सर्वाधिक प्रचलित स्वरूप पितरों के तर्पण से जुड़ा है। पितृपक्ष के ठीक पूर्व पड़ने के कारण यह दिन पितरों की शांति और तृप्ति के लिए किए जाने वाले श्राद्ध, पिंडदान और दान-पुण्य के कार्यों के लिए अत्यधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है

तिथियों का विशेष संयोग

भाद्रपद अमावस्या का माहात्म्य तब और भी बढ़ जाता है जब यह किसी विशेष वार को पड़ती है। ऐसे संयोग इसके पुण्य-फल को कई गुना वर्धित कर देते हैं।

  • सोमवती अमावस्या: जब यह अमावस्या सोमवार के दिन पड़ती है, तो इसे 'सोमवती अमावस्या' कहा जाता है । यह संयोग अत्यंत दुर्लभ और पुण्यकारी माना गया है। शास्त्रों में सोमवती अमावस्या के दिन किए गए स्नान, दान और पूजन को अक्षय फलदायी बताया गया है। विशेष रूप से, इस दिन संग्रह की गई कुशा के विषय में मान्यता है कि वह एक वर्ष के स्थान पर बारह वर्षों तक अपनी पवित्रता और प्रभावकारिता बनाए रखती है, जो इसे साधकों के लिए एक अमूल्य निधि बना देती है

  • शनि अमावस्या: जब यह अमावस्या शनिवार के दिन पड़ती है, तो इसे 'शनि अमावस्या' या 'शनैश्चरी अमावस्या' कहते हैं । शनिदेव को अमावस्या तिथि का स्वामी भी माना जाता है और शनिवार उनका अपना दिन है। अतः यह संयोग शनि-दोष, साढ़ेसाती या ढैय्या के दुष्प्रभावों से शांति पाने के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो जाता है। इस दिन पीपल के वृक्ष का पूजन, शनिदेव को तेल अर्पित करना और पितरों का तर्पण करने से पितृ-दोष एवं शनि-दोष दोनों से एक साथ शांति मिलती है

इन विभिन्न स्वरूपों का एक ही तिथि में समाहित होना भारतीय धर्म-दृष्टि की समग्रता को दर्शाता है। यह एक ऐसा पर्व है जो व्यक्ति को उसके लौकिक (संतान) और पारलौकिक (पितर) दोनों कुलों से जोड़ता है तथा धर्म-कर्म के निर्विघ्न सम्पादन हेतु आवश्यक सामग्री (कुशा) को एकत्रित करने का अवसर प्रदान करता है।

सारणी 1: भाद्रपद अमावस्या के विविध स्वरूप

पहलू (Aspect)मुख्य उद्देश्य (Primary Objective)प्रमुख आराध्य (Main Focus)मुख्य क्रिया (Key Ritual)सम्बंधित नाम (Associated Name)
कुशा-संग्रहवर्ष भर के लिए पवित्र घास का संचयकुश (दर्भ)कुश उखाड़ना (उत्पाटन)कुशोत्पाटिनी/कुशाग्रहणी
संतान-कल्याणसंतान की दीर्घायु एवं सुख-समृद्धिमाँ दुर्गा, ६४ योगिनियाँआटे की मूर्ति पूजा, व्रतपिठौरी अमावस्या
पितृ-कर्मपितरों की तृप्ति एवं आशीर्वाद प्राप्तिपितृगण (Ancestors)श्राद्ध, तर्पण, पिंडदानभाद्रपद अमावस्या

II. कुशोत्पाटिनी अमावस्या: वर्षपर्यंत के अनुष्ठानों हेतु 'कुशा' का संग्रह

भाद्रपद अमावस्या का प्रथम एवं सर्वाधिक मौलिक स्वरूप 'कुशोत्पाटिनी' या 'कुशाग्रहणी' है। इस दिन का यह नाम 'कुश' नामक पवित्र तृण (घास) के 'उत्पाटन' (उखाड़ने) या 'ग्रहण' करने की क्रिया से पड़ा है। सनातन धर्म के किसी भी वैदिक या पौराणिक अनुष्ठान की कल्पना कुशा के बिना नहीं की जा सकती। यह केवल एक घास नहीं, अपितु दिव्यता और पवित्रता का मूर्त प्रतीक है।

निर्णयसिन्धु (श्राद्धप्रकरण):

“भाद्रपदेऽमावास्यायां कुशान् गृह्णीयात्। अन्यदा न ग्रहणीयाः।”

भावार्थ:
भाद्रपद अमावस्या को ही कुशा को उखाड़ना चाहिए; अन्य समय पर कुशा ग्रहण करना निषिद्ध है।



कुशा का पौराणिक एवं शास्त्रीय महत्त्व

कुशा की पवित्रता उसके दिव्य उद्गम से जुड़ी कथाओं में निहित है। विभिन्न पुराणों में इसकी उत्पत्ति के अनेक प्रसंग मिलते हैं, जो इसे देवत्व से जोड़ते हैं।

  • पौराणिक उत्पत्ति:

    1. वराह अवतार प्रसंग: मत्स्य पुराण के अनुसार, जब भगवान विष्णु ने हिरण्याक्ष का वध करने के उपरान्त पृथ्वी का उद्धार करने हेतु वराह अवतार धारण किया, तब पृथ्वी को स्थापित करने के पश्चात् उन्होंने अपने शरीर को झटका। उस समय उनके शरीर से जो रोम (बाल) पृथ्वी पर गिरे, वे ही 'कुश' के रूप में अंकुरित हुए । भगवान के श्री-अंग से प्रत्यक्ष उत्पन्न होने के कारण इसे परम पवित्र माना गया।

    2. सीता एवं गरुड़ प्रसंग: एक अन्य लोक-मान्यता के अनुसार, जब माता सीता पृथ्वी में समा रही थीं, तब भगवान श्रीराम ने उन्हें रोकने का प्रयास किया, किन्तु उनके हाथ में केवल माता सीता के केश ही आ पाए। यही केश राशि 'कुशा' के रूप में परिणत हो गई । एक और प्रसंग के अनुसार, जब गरुड़ देव स्वर्ग से अमृत-कलश लेकर आए, तो उन्होंने कुछ क्षणों के लिए उसे पृथ्वी पर कुशा के आसन पर रखा था। अमृत के स्पर्श से कुशा सदा के लिए पवित्र और अमरत्व के गुणों से युक्त हो गई

  • कुशा में त्रिदेवों का वास: कुशा का धार्मिक महत्त्व इस शास्त्रीय मान्यता में निहित है कि इसमें त्रिदेव—ब्रह्मा, विष्णु और महेश—का वास होता है। एक प्रसिद्ध श्लोक इस तत्त्व को स्पष्ट करता है:

    कुशमूले स्थितो ब्रह्मा कुशमध्ये जनार्दनः।कुशाग्रे शङ्करो देवः त्रयो देवाः कुशे स्थिताः॥

    अर्थात्, "कुश के मूल (जड़) में ब्रह्मा जी स्थित हैं, कुश के मध्य भाग में भगवान जनार्दन (विष्णु) और अग्रभाग में देव-देव महादेव शंकर स्थित हैं। इस प्रकार, तीनों देव कुशा में निवास करते हैं" । इसी कारण किसी भी कर्मकाण्ड में कुशा का स्पर्श मात्र त्रिदेवों के सान्निध्य का पुण्य प्रदान करता है।

  • अनुष्ठानों में कुशा की अनिवार्यता: धर्मशास्त्रों में यह स्पष्ट निर्देश है कि कुशा के बिना किया गया कोई भी जप, तप, दान या पूजन निष्फल हो जाता है। कुशा से बनी 'पवित्री' धारण किए बिना कोई भी अनुष्ठान पूर्ण नहीं माना जाता।

    • एक शास्त्रवचन के अनुसार:

      पूजाकाले सर्वदैव कुशहस्तो भवेच्छुचि:कुशेन रहिता पूजा विफला कथिता मया॥

      अर्थात्, "पूजा के समय कर्ता को हाथ में कुश धारण करके पवित्र होना चाहिए। मेरे (शास्त्र के) द्वारा कहा गया है कि कुशा से रहित पूजा विफल हो जाती है"

    • एक अन्य वचन इसकी महत्ता को और दृढ़ करता है:

      विना दर्भेण यत्कर्म... राक्षसं तद्भवेत्सर्वन्नामुत्रेह फलप्रदम्॥

      अर्थात्, "दर्भ (कुशा) के बिना जो भी कर्म किया जाता है, वह राक्षसी कर्म हो जाता है और न तो इस लोक में और न ही परलोक में फल प्रदान करता है"

कुश-संग्रह की शास्त्रोक्त विधि एवं मंत्र

भाद्रपद अमावस्या के दिन कुशा का संग्रह एक सामान्य क्रिया नहीं, अपितु एक विधि-विधान युक्त अनुष्ठान है। इसके लिए शास्त्रों में विशिष्ट नियम और मंत्र निर्धारित हैं।

  • प्रक्रिया: साधक को प्रातःकाल स्नानादि से निवृत्त होकर श्वेत वस्त्र धारण करने चाहिए। इसके पश्चात् कुश वाले स्थान पर जाकर पूर्वाभिमुख (पूर्व की ओर मुख करके) या उत्तराभिमुख (उत्तर की ओर मुख करके) बैठना चाहिए

  • प्रार्थना मंत्र: कुश को स्पर्श करने से पूर्व हाथ जोड़कर उससे प्रार्थना करनी चाहिए। यह मंत्र प्रकृति के प्रति सम्मान और उसकी दिव्यता की स्वीकृति का प्रतीक है:

    विरन्चिना सहोत्पन्न परमेष्ठिनिसर्जन।नुद सर्वाणि पापानि दर्भ स्वस्तिकरो भव॥

    अर्थात्, "हे दर्भ! आप ब्रह्मा जी के साथ उत्पन्न हुए हैं और परमेष्ठी (ब्रह्मा) की सृष्टि हैं। आप मेरे सभी पापों का नाश करें और मेरे लिए कल्याणकारी हों"

  • उत्पाटन मंत्र: इस प्रार्थना के पश्चात्, एक ही झटके में कुश को उखाड़ना चाहिए। उखाड़ते समय हुँ फट् इस बीज मंत्र का उच्चारण करना चाहिए । यदि कुश एक बार में न उखड़े, तो उसे छोड़ देना चाहिए, क्योंकि वह ग्रहण करने योग्य नहीं मानी जाती।

  • चयन के नियम: सभी प्रकार की कुशा संग्रह योग्य नहीं होती। शास्त्रों के अनुसार, जो कुशा मार्ग में हो, श्मशान या किसी अशुद्ध स्थान पर उगी हो, जली हुई हो, या जिसका अग्रभाग कटा हुआ हो, उसे देव-कार्य या पितृ-कार्य के लिए ग्रहण नहीं करना चाहिए । ऐसी कुशा का चयन करना चाहिए जो हरी हो, पत्तियों से युक्त हो और जिसका अग्रभाग तीक्ष्ण एवं अखंडित हो

संग्रहीत कुशा की मान्यता एवं उपयोग

इस विशेष दिन पर संग्रहीत कुशा की अपनी विशिष्ट मान्यताएँ हैं जो इसे अन्य दिनों में तोड़ी गई कुशा से श्रेष्ठ बनाती हैं।

  • अवधि की मान्यता: सामान्य दिनों में तोड़ी गई कुशा की पवित्रता कुछ ही समय तक रहती है, किन्तु भाद्रपद अमावस्या को तोड़ी गई कुशा पूरे एक वर्ष तक शुद्ध एवं उपयोग के योग्य मानी जाती है । यदि यह अमावस्या सोमवार को (सोमवती अमावस्या) पड़े, तो इस दिन संग्रहीत कुशा की शक्ति बारह वर्षों तक अक्षुण्ण रहती है । यह इस दिन के असाधारण महत्त्व को रेखांकित करता है।

  • रक्षणात्मक एवं वैज्ञानिक पक्ष: लोक-मान्यता है कि इस दिन लाई गई कुशा को घर में रखने से यह वर्ष भर घर को नकारात्मक ऊर्जाओं, तंत्र-मंत्र, जादू-टोने और बुरी दृष्टि से सुरक्षित रखती है । वैज्ञानिक दृष्टि से भी कुशा को ऊर्जा का कुचालक (insulator) माना गया है। जप या अनुष्ठान के समय इसे आसन के रूप में प्रयोग करने या हाथ में धारण करने से साधक के शरीर में उत्पन्न आध्यात्मिक ऊर्जा पृथ्वी में विलीन नहीं होती, बल्कि शरीर में ही संरक्षित रहती है, जिससे साधना का पूर्ण फल प्राप्त होता है

कुशोत्पाटिनी का यह अनुष्ठान प्रकृति के मानवीकरण और उसके देवत्व की स्वीकृति का अनुपम उदाहरण है। यह एक साधारण घास को त्रिदेवों के अधिष्ठान के रूप में प्रतिष्ठित करता है और एक सरल क्रिया को गहन शास्त्रीय विधान से जोड़कर उसे एक संस्कार का रूप देता है।


III. पिठौरी अमावस्या: संतान-कल्याण एवं मातृत्व का अनुष्ठान

भाद्रपद अमावस्या का दूसरा स्वरूप 'पिठौरी अमावस्या' के रूप में विख्यात है। यह पूर्ण रूप से एक मातृ-प्रधान पर्व है, जो संतान के कल्याण, आरोग्य और दीर्घायु की कामना के लिए समर्पित है। इस व्रत का नामकरण इसकी विशिष्ट पूजा-पद्धति से हुआ है।

धर्मसिन्धु:

“भाद्रपदे कृष्णामावास्यायां स्त्रियः पिठां निर्माय पूजनं कुर्वन्ति।”

भावार्थ:
भाद्रपद की कृष्ण अमावस्या को स्त्रियाँ आटे की पिठोरियाँ बनाकर देवी का पूजन करती हैं।

'पिठौरी' का अर्थ एवं व्रत का उद्देश्य

'पिठौरी' शब्द संस्कृत के 'पिष्ट' या प्राकृत के 'पिठ्ठ' शब्द से बना है, जिसका अर्थ है 'आटा' । इस व्रत में आटे (विशेषकर गेहूं या बेसन के आटे) से देवी-देवताओं की छोटी-छोटी मूर्तियाँ (पिठौरियाँ) बनाकर उनकी पूजा करने का विधान है। इसी कारण इस अमावस्या को 'पिठौरी अमावस्या' कहा जाता है । इस व्रत का मुख्य उद्देश्य विवाहित स्त्रियों द्वारा अपनी संतानों के जीवन से सभी कष्टों को दूर करने, उन्हें उत्तम स्वास्थ्य और लम्बी आयु प्रदान करने की प्रार्थना करना है। निःसंतान स्त्रियाँ भी संतान-प्राप्ति की कामना से यह व्रत करती हैं

आराध्य देवियाँ: माँ दुर्गा एवं चौंसठ योगिनियाँ

पिठौरी अमावस्या का व्रत शक्ति-उपासना का एक विशिष्ट पर्व है। इस दिन की मुख्य आराध्य देवियाँ माँ दुर्गा और उनके साथ चौंसठ योगिनियाँ (चौंसठ योगिनियाँ) हैं

  • माँ दुर्गा: वे शक्ति का सार्वभौम और सर्वोच्च स्वरूप हैं, जो सम्पूर्ण सृष्टि की रक्षिका और संहारिका हैं। इस दिन उनकी पूजा मातृत्व और संरक्षण के प्रतीक के रूप में की जाती है।

  • चौंसठ योगिनियाँ: योगिनियाँ देवी की ही रहस्यमयी और शक्तिशाली सहचरियाँ या स्वरूप मानी जाती हैं। तंत्र-परम्परा में इनका स्थान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। माना जाता है कि इनकी उत्पत्ति आठ मातृकाओं (ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, नारसिंही, इन्द्राणी और चामुण्डा) से हुई है, और प्रत्येक मातृका की आठ सहायक शक्तियों को मिलाकर इनकी संख्या 64 हो जाती है । इनकी उपासना से संतान-सुख, सुरक्षा और तांत्रिक सिद्धियों की प्राप्ति होती है। पिठौरी अमावस्या पर आटे से इनकी प्रतीकात्मक मूर्तियाँ बनाकर पूजना इस व्रत की एक अनूठी विशेषता है

विस्तृत पूजा-विधि

पिठौरी अमावस्या का पूजन विधि-विधान पूर्वक किया जाता है, जिसके प्रमुख चरण इस प्रकार हैं:

  1. स्नान एवं संकल्प: व्रती स्त्रियाँ प्रातःकाल ब्रह्म मुहूर्त में उठकर पवित्र नदी में अथवा घर पर ही जल में गंगाजल मिलाकर स्नान करती हैं। इसके पश्चात् स्वच्छ वस्त्र धारण कर अपनी संतान की रक्षा, सुख और समृद्धि की कामना के साथ व्रत का संकल्प लेती हैं

  2. मूर्ति-निर्माण: पूजा के लिए गेहूं या चने के बेसन के आटे को गूंथकर उससे माँ दुर्गा, भगवान शिव तथा 64 योगिनियों की छोटी-छोटी प्रतीकात्मक मूर्तियाँ बनाई जाती हैं

  3. स्थापना एवं पूजन: पूजा-स्थल पर एक चौकी पर पीला वस्त्र बिछाकर इन आटे की मूर्तियों को स्थापित किया जाता है। एक कलश की स्थापना भी की जाती है। सर्वप्रथम भगवान गणेश का स्मरण कर पूजन आरम्भ किया जाता है, तत्पश्चात् माँ दुर्गा और 64 योगिनियों का षोडशोपचार या पंचोपचार पूजन किया जाता है। उन्हें जल, अक्षत, पुष्प, रोली, हल्दी, धूप, दीप और नैवेद्य अर्पित किया जाता है

  4. श्रृंगार अर्पण: देवियों को सुहाग की सामग्री और सोलह श्रृंगार (साड़ी, सिंदूर, मेहंदी, चूड़ी आदि) अर्पित करने का विशेष महत्त्व है

  5. व्रत-कथा श्रवण: पूजा के दौरान पिठौरी अमावस्या की व्रत-कथा को सुनना या पढ़ना अनिवार्य माना जाता है। कथा के श्रवण बिना व्रत अधूरा रहता है

  6. ब्राह्मण/कन्या भोजन: पूजन और आरती के पश्चात् ब्राह्मणों अथवा छोटी कन्याओं को भोजन कराया जाता है और उन्हें दान-दक्षिणा देकर विदा किया जाता है। इसके उपरान्त ही व्रती स्वयं पारण करती है

पिठौरी अमावस्या व्रत-कथा

इस व्रत से जुड़ी एक प्रसिद्ध लोककथा है जो इसके माहात्म्य को दर्शाती है। कथा इस प्रकार है:

बहुत समय पहले एक परिवार में सात भाई रहते थे, जो सभी विवाहित थे और उनके छोटे-छोटे बच्चे थे। परिवार की सुख-समृद्धि के लिए सातों भाइयों की पत्नियाँ पिठौरी अमावस्या का व्रत करना चाहती थीं। जब पहले वर्ष बड़े भाई की पत्नी ने व्रत रखा, तो उसके पुत्र की मृत्यु हो गई। यह क्रम सात वर्षों तक चलता रहा और हर वर्ष व्रत के दिन उसके एक पुत्र की मृत्यु हो जाती। सातवें वर्ष वह अत्यंत दुःखी हुई और उसने अपने मृत पुत्र के शव को कहीं छिपा दिया।

उस समय गाँव की कुलदेवी, माँ पोलेरम्मा, गाँव की रक्षा के लिए पहरा दे रही थीं। उन्होंने उस दुःखी माँ को विलाप करते देखा और उसका कारण पूछा। जब उस स्त्री ने अपनी पूरी व्यथा सुनाई, तो देवी को उस पर दया आ गई। माँ पोलेरम्मा ने उससे कहा कि वह उन सभी स्थानों पर हल्दी छिड़क दे, जहाँ-जहाँ उसके पुत्रों का अंतिम संस्कार हुआ था। स्त्री ने देवी के कहे अनुसार वैसा ही किया। जब वह हल्दी छिड़क कर अपने घर लौटी, तो उसने आश्चर्य से देखा कि उसके सातों पुत्र जीवित होकर खेल रहे हैं। उसकी प्रसन्नता का कोई ठिकाना न रहा। उस दिन के बाद से उस गाँव की प्रत्येक माता अपनी संतान की दीर्घायु की कामना से पिठौरी अमावस्या का व्रत रखने लगी

  • क्षेत्रीय भिन्नता: यह कथा उत्तर और दक्षिण भारत में इस पर्व के स्वरूपों को जोड़ती है। उत्तर भारत में जहाँ यह पर्व 'पिठौरी अमावस्या' के नाम से माँ दुर्गा और 64 योगिनियों की पूजा के साथ मनाया जाता है, वहीं दक्षिण भारत में इसे 'पोलाला अमावस्या' के रूप में मनाया जाता है और माँ पोलेरम्मा को मुख्य आराध्या माना जाता है, जिन्हें माँ दुर्गा या पार्वती का ही एक स्वरूप माना जाता है

यह व्रत शास्त्रीय (दुर्गा पूजा) और लोक-तान्त्रिक (योगिनी एवं ग्रामदेवी पूजा) परम्पराओं का एक अद्भुत समन्वय प्रस्तुत करता है। आटे जैसी सहज उपलब्ध सामग्री से मूर्ति-निर्माण इसकी लोक-प्रकृति को दर्शाता है, जबकि दुर्गा और योगिनियों का पूजन इसे एक व्यापक शास्त्रीय आधार प्रदान करता है। यह सब मातृत्व की सार्वभौमिक भावना और संतान-रक्षा की कामना के एक सूत्र में बंधा है।


IV. पितृ-पक्ष की भूमिका: भाद्रपद अमावस्या पर श्राद्ध-तर्पण

भाद्रपद अमावस्या का तीसरा और सबसे व्यापक रूप से प्रचलित महत्त्व इसके पितृ-कर्मों से सम्बन्ध को लेकर है। यह तिथि पितृपक्ष के महालय का द्वार है, और इस दिन किए गए श्राद्ध-तर्पण का फल पितरों को सहज ही प्राप्त होता है, ऐसी शास्त्रीय मान्यता है।

कल्पद्रुम (श्राद्धकाण्ड):

“अमावास्या पितॄणां प्रियतमा तस्मिन् दिने श्राद्धं कृत्वा पितरः प्रीयन्ते।”

भावार्थ:
अमावस्या पितरों की प्रिय तिथि है; इस दिन किया गया श्राद्ध पितरों को विशेष तृप्त करता है।

अमावस्या तिथि और पितर

धर्मशास्त्रों के अनुसार, प्रत्येक अमावस्या तिथि के स्वामी 'पितृदेव' माने गए हैं । इस कारण यह तिथि स्वाभाविक रूप से पितरों की पूजा, उनके निमित्त तर्पण और पिंडदान के लिए सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। भाद्रपद मास की अमावस्या पितृपक्ष के आरम्भ से ठीक पहले पड़ती है, इसलिए इसे पितरों के स्वागत और उनकी वार्षिक तृप्ति के अनुष्ठान का प्रारम्भ माना जाता है । मान्यता है कि इस दिन पितर अपने वंशजों के द्वार पर सूक्ष्म रूप में उपस्थित होकर उनसे श्राद्ध और जलांजलि की अपेक्षा करते हैं।

गरुड़ पुराण के आलोक में श्राद्ध-कर्म

श्राद्ध-कर्म और परलोक-विद्या के विषय में गरुड़ पुराण को सर्वाधिक प्रामाणिक ग्रन्थ माना जाता है। इस पुराण में अमावस्या के दिन किए जाने वाले श्राद्ध का विशेष महत्त्व और फल बताया गया है।

  • श्राद्ध की अनिवार्यता एवं फल: गरुड़ पुराण के अनुसार, श्राद्ध कर्म करना प्रत्येक गृहस्थ का अनिवार्य कर्तव्य है। यह पितृ-ऋण से मुक्ति का एकमात्र उपाय है। श्रद्धापूर्वक किया गया श्राद्ध कर्म पितरों को तृप्ति और सद्गति प्रदान करता है। इससे प्रसन्न होकर पितृगण श्राद्धकर्ता को आयु, पुत्र, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुष्टि, बल, श्री (ऐश्वर्य), पशु, सुख और धन-धान्य का आशीर्वाद प्रदान करते हैं (आयुः, पुत्रान्, यशः, स्वर्गं, कीर्तिं, पुष्टिं, बलं, श्रियम्...) । जो व्यक्ति श्राद्ध नहीं करता, उसके पितर अतृप्त और रुष्ट होकर लौट जाते हैं, जिससे उसके कुल में दुःख, दारिद्र्य, रोग और संतानहीनता जैसे कष्ट आते हैं

  • पिंडदान: गरुड़ पुराण में पिंडदान को श्राद्ध का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग बताया गया है। सामान्य विधि के अनुसार, पके हुए चावल, दूध, घी, शक्कर और शहद को मिलाकर पिंड बनाए जाते हैं और पितरों का नाम तथा गोत्र बोलकर उन्हें अर्पित किए जाते हैं । यह पिंड पितरों के सूक्ष्म शरीर को पोषण और तृप्ति प्रदान करता है।

  • पंचबलि कर्म: यह श्राद्ध का एक अभिन्न अंग है, जिसका पालन गरुड़ पुराण अनिवार्य बताता है। अपने और ब्राह्मण के भोजन करने से पूर्व, भोजन के पाँच अंश निकालकर पाँच विभिन्न योनियों के लिए अर्पित किए जाते हैं। यह कर्म दर्शाता है कि हिन्दू धर्म में केवल मनुष्यों ही नहीं, अपितु समस्त जीव-जगत के प्रति कृतज्ञता का भाव है। ये पंचबलि हैं:

    1. गोबलि: गाय के लिए भोजन का अंश।

    2. श्वानबलि: कुत्ते के लिए भोजन का अंश।

    3. काकबलि: कौए के लिए भोजन का अंश (कौए को पितरों का दूत माना जाता है)।

    4. देवबलि: देवताओं के निमित्त अग्नि में या पूजा-स्थान पर अर्पित अंश।

    5. पिपीलिकादिबलि: चींटियों और अन्य छोटे कीट-पतंगों के लिए भोजन का अंश

  • ब्राह्मण भोजन एवं दान: श्राद्ध की पूर्णता एक सुपात्र, सदाचारी ब्राह्मण को भोजन कराने और अपनी सामर्थ्य के अनुसार दान-दक्षिणा देने से होती है। माना जाता है कि ब्राह्मण के मुख से ग्रहण किया गया भोजन पितरों तक पहुँचता है। इसके अतिरिक्त, इस दिन अन्न, वस्त्र, छाता, जूते-चप्पल आदि का दान करना भी पितरों को अत्यंत प्रसन्न करता है

सरल तर्पण विधि

जो व्यक्ति विस्तृत श्राद्ध-कर्म करने में असमर्थ हों, वे भी सरल तर्पण विधि से अपने पितरों को तृप्त कर सकते हैं।

  • सामग्री: एक तांबे का पात्र (लोटा), शुद्ध जल (संभव हो तो गंगाजल मिश्रित), काले तिल और कुछ कुश।

  • विधि: प्रातःकाल स्नान के पश्चात् दक्षिण दिशा की ओर मुख करके बैठें। हाथ में कुश की पवित्री धारण करें। तांबे के पात्र में जल और काले तिल मिला लें। अपने गोत्र और पितरों (पिता, पितामह, प्रपितामह; नाना, प्रमातामह, वृद्धप्रमातामह आदि) का नाम लेकर, हाथ की अंजुलि में जल और तिल लेकर अंगूठे के माध्यम से (पितृ तीर्थ से) जल को किसी पात्र में छोड़ें। जल देते समय पितरों का आवाहन करें।

  • आवाहन मंत्र:

     आगच्छन्तु मे पितर इमं गृह्णन्तु जलाञ्जलिम्

    अर्थात्, "हे मेरे पितरगण! आप पधारें और इस जलांजलि को ग्रहण करें"

पीपल पूजन का महत्त्व

हिन्दू धर्म में पीपल के वृक्ष को अत्यंत पवित्र माना गया है। शास्त्रों के अनुसार, इसमें ब्रह्मा, विष्णु, महेश के साथ-साथ पितरों का भी वास होता है । भाद्रपद अमावस्या के दिन पीपल के वृक्ष की पूजा करना पितरों को प्रसन्न करने का एक अचूक उपाय है। प्रातःकाल पीपल की जड़ में कच्चा दूध, गंगाजल, काले तिल और पुष्प मिश्रित जल अर्पित करना चाहिए। सायंकाल में सरसों के तेल का दीपक जलाकर वृक्ष की सात परिक्रमा करनी चाहिए और पितरों की शांति के लिए प्रार्थना करनी चाहिए

इस प्रकार, भाद्रपद अमावस्या पितृ-आराधना का एक महापर्व है। यह केवल एक कर्मकाण्ड नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है जिसके माध्यम से वर्तमान पीढ़ी अपनी पूर्व पीढ़ियों के प्रति श्रद्धा और कृतज्ञता व्यक्त करती है और उनके आशीर्वाद से अपने भविष्य को सुरक्षित करती है।


V. संदर्भित धर्म-ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय

इस सम्पूर्ण विवेचन का आधार प्रामाणिक धर्म-ग्रन्थ हैं। उपयोगकर्ता की जिज्ञासा के अनुरूप, यहाँ उन प्रमुख ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत है जिनका उल्लेख इस मार्गदर्शन में किया गया है। इन ग्रन्थों कीautorité (प्रामाणिकता) ही इन अनुष्ठानों को शास्त्रीय आधार प्रदान करती है।

पुराण (The Puranas)

पुराण हिन्दू धर्म के वे ग्रन्थ हैं जिनमें सृष्टि, प्रलय, वंश, मन्वन्तर और वंशानुचरित का वर्णन होता है। ये कथाओं के माध्यम से गूढ़ दार्शनिक तत्त्वों को सरल रूप में प्रस्तुत करते हैं।

  • गरुड़ पुराण (Garuda Purana): यह एक वैष्णव पुराण है, जो भगवान विष्णु और उनके वाहन गरुड़ के मध्य हुए संवाद पर आधारित है। इसका द्वितीय खण्ड, जिसे 'प्रेत खण्ड' या 'गरुड़ पुराण सारोद्धार' कहा जाता है, मृत्यु, परलोक, यमलोक की यात्रा, विभिन्न नरकों, श्राद्ध-कर्म, पिंडदान और पितरों की गति से सम्बंधित विषयों का विस्तृत और प्रामाणिक विवेचन प्रस्तुत करता है। पितृ-कर्म के विषय में इसे सर्वोच्च ग्रन्थ माना जाता है

  • मत्स्य पुराण (Matsya Purana): यह अठारह महापुराणों में से एक है और इसे प्राचीनतम पुराणों में गिना जाता है। इसमें भगवान विष्णु के मत्स्य अवतार की मुख्य कथा के साथ-साथ व्रत, पर्व, तीर्थ, दान, राजधर्म और विभिन्न अनुष्ठानों का विश्वकोशीय वर्णन मिलता है। कुशा की उत्पत्ति की वराह अवतार से सम्बंधित कथा इसी पुराण में वर्णित है

  • मार्कण्डेय पुराण (Markandeya Purana): यह पुराण ऋषि मार्कण्डेय और उनके शिष्यों के मध्य हुए संवाद के रूप में है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि प्रसिद्ध 'दुर्गासप्तशती' (देवी माहात्म्यम्) इसी का एक अभिन्न अंग है। इसमें धर्म, योग, पितृ-कर्म और सृष्टि-क्रम से सम्बंधित अनेक गहन विषयों पर प्रकाश डाला गया है

  • वायु पुराण (Vayu Purana): यह एक प्राचीन शैव पुराण है, जिसमें भगवान शिव की महिमा के साथ-साथ सृष्टि-प्रक्रिया, भूगोल, खगोल, संगीत और श्राद्ध-कल्प का अत्यंत विस्तृत वर्णन है। श्राद्ध की विधियों और उसके फलों के विषय में यह एक महत्त्वपूर्ण स्रोत ग्रन्थ है

धर्मशास्त्र (Dharmashastra - The Nibandha Granthas)

धर्मशास्त्र के अन्तर्गत स्मृति-ग्रन्थों के पश्चात् 'निबन्ध-ग्रन्थों' का स्थान आता है। ये ग्रन्थ विभिन्न स्मृतियों, पुराणों और अन्य धर्मशास्त्रीय ग्रन्थों के मतों का संकलन, विश्लेषण और समन्वय करके किसी विषय पर एक सुस्पष्ट 'निर्णय' प्रस्तुत करते हैं।

  • निर्णयसिन्धु (Nirnaya Sindhu): सत्रहवीं शताब्दी के महान धर्मशास्त्री कमलाकर भट्ट द्वारा रचित यह एक बृहत् और परम-प्रामाणिक निबन्ध-ग्रन्थ है। इसमें काल-निर्णय (व्रत-पर्वों की तिथियों का निर्धारण), संस्कारों, श्राद्ध और शुद्धि-अशुद्धि (सूतक) जैसे विषयों पर विभिन्न मतों की सूक्ष्म मीमांसा करके एक सर्वमान्य सिद्धान्त स्थापित किया गया है। आज भी भारत के अधिकांश पण्डित और कर्मकाण्डी विद्वान् इसी ग्रन्थ को आधार मानकर पञ्चाङ्ग-निर्माण और धार्मिक कृत्यों का निर्णय करते हैं

  • धर्मसिन्धु (Dharmasindhu): अठारहवीं शताब्दी में काशीनाथ उपाध्याय द्वारा रचित यह ग्रन्थ भी एक अत्यन्त लोकप्रिय और प्रामाणिक निबन्ध-ग्रन्थ है। इसकी विशेषता इसकी सुस्पष्ट, सरल और सुव्यवस्थित प्रस्तुति है। इसने निर्णयसिन्धु जैसे जटिल ग्रन्थों के सिद्धान्तों को गृहस्थों के लिए सुलभ बना दिया। यह ग्रन्थ दैनिक कृत्यों से लेकर सभी प्रमुख संस्कारों, व्रतों और श्राद्ध-कर्मों के लिए एक व्यावहारिक मार्गदर्शिका के रूप में कार्य करता है

इन ग्रन्थों का संदर्भ इस विवेचन को केवल लोक-परम्पराओं के वर्णन तक सीमित न रखकर एक ठोस शास्त्रीय आधार प्रदान करता है, जो जिज्ञासु साधक के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।


VI. एक तिथि, अनेक साधनाएं

भाद्रपद अमावस्या का गहन शास्त्रीय और पौराणिक विश्लेषण यह स्पष्ट करता है कि यह तिथि हिन्दू पञ्चाङ्ग में एक साधारण दिवस मात्र नहीं, अपितु एक बहुआयामी आध्यात्मिक पर्व है। यह एक ही दिन में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के पुरुषार्थों को साधने की प्रेरणा देती है। यह एक ऐसी तिथि है जो तीन पृथक् साधना-पद्धतियों—कुशोत्पाटिनी, पिठौरी और पितृ-तर्पण—को एक ही सूत्र में पिरोती है।

कुशोत्पाटिनी अमावस्या के रूप में यह हमें धर्म के अनुष्ठानिक पक्ष की तैयारी और शुचिता का पाठ पढ़ाती है। यह सिखाती है कि किसी भी श्रेष्ठ कर्म के सम्पादन के लिए पवित्र उपकरणों और पवित्र भाव की आवश्यकता होती है। कुशा का संग्रह मात्र एक भौतिक क्रिया नहीं, अपितु वर्ष भर के धर्म-कर्म के प्रति हमारी प्रतिबद्धता का संकल्प है।

पिठौरी अमावस्या के रूप में यह तिथि हमें गृहस्थ धर्म के केंद्र—संतान—के प्रति हमारे कर्तव्यों का स्मरण कराती है। यह मातृत्व की शक्ति और उसके निःस्वार्थ प्रेम का उत्सव है। माँ दुर्गा और चौंसठ योगिनियों का पूजन यह संदेश देता है कि भावी पीढ़ी का संरक्षण और संवर्धन दैवीय शक्तियों की कृपा से ही संभव है। यह वर्तमान को भविष्य से जोड़ने का अनुष्ठान है।

और अंततः, पितृ-कर्म के लिए एक महत्त्वपूर्ण दिवस के रूप में, यह अमावस्या हमें हमारे मूल, हमारी जड़ों, अर्थात् हमारे पूर्वजों से जोड़ती है। यह कृतज्ञता, श्रद्धा और ऋण-मुक्ति का पर्व है। श्राद्ध और तर्पण के माध्यम से हम यह स्वीकार करते हैं कि हमारा अस्तित्व हमारे पितरों का ही विस्तार है और उनकी तृप्ति में ही हमारी समृद्धि निहित है। यह वर्तमान को अतीत से जोड़ने का अनुष्ठान है।

इस प्रकार, भाद्रपद अमावस्या एक अद्वितीय तिथि है जो अतीत (पितर), वर्तमान (स्वयं) और भविष्य (संतान) के मध्य एक सामंजस्यपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करती है। यह एक ही दिन में हमें प्रकृति (कुशा) का सम्मान करना, दैवीय शक्ति (देवी) की उपासना करना और अपने कुल (पितर) का स्मरण करना सिखाती है। यह एक गृहस्थ के सम्पूर्ण धर्म-चक्र का प्रतीक है, जो इसे सनातन परम्परा का एक गहन और सार्थक पर्व बनाता है।

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