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सातूं-आठूं: पारंपरिक पर्व की कहानी और रीतियाँ

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```html सातूं-आठूं: पारंपरिक पर्व की कहानी

सातूं-आठूं: पारंपरिक पर्व की कहानी और रीतियाँ

पहाड़ों का दिव्य पर्व, जहाँ 'दीदी' हैं पार्वती, 'जीजा' हैं महादेव

🌿 उत्तराखंड, हमारी देवभूमि! यह सिर्फ बर्फ से ढकी चोटियों और पवित्र नदियों का घर नहीं है, बल्कि यह उन अनूठी परंपराओं और त्योहारों की भूमि भी है, जो प्रकृति, आस्था और मानवीय रिश्तों के धागों से खूबसूरती से बुने गए हैं। 🌸

पर्व की खासियत

यह पर्व भाद्रपद महीने की सप्तमी और अष्टमी को मनाया जाता है। इसकी सबसे खास बात भगवान शिव और माँ पार्वती को देखने का एक बिल्कुल नया और आत्मीय नज़रिया है। इस त्योहार में, माँ पार्वती को 'दीदी' (बड़ी बहन) और भगवान शिव को 'जीजा' (जीजाजी) के रूप में पूजा जाता है।

क्यों है यह पर्व इतना खास?

इस पर्व की आत्मा दो खूबसूरत कथाओं में बसती है।

दीदी-जीजा का मानवीय रिश्ता:

मुख्य मान्यता यह है कि इस समय दीदी गौरा (पार्वती) अपने पति महादेव से किसी बात पर रूठकर अपने मायके (पृथ्वी) आ जाती हैं। तब जीजा महेश्वर (शिव) उन्हें मनाने और वापस कैलाश ले जाने के लिए ससुराल आते हैं। यह पूरा पर्व इसी कल्पना पर आधारित है, जिसमें मायके आई बहन की सेवा और जीजाजी के मान-मनौव्वल का उत्सव मनाया जाता है।

संतान सुख और सौभाग्य की लोककथा

👶 एक गाँव में एक वृद्ध दंपति थे, जिनके सात बेटे और सात बहुएँ थीं, पर घर में किसी बच्चे की किलकारी नहीं गूंजी थी। एक दिन ससुर ने कुछ महिलाओं को एक नौले (जल स्रोत) पर कुछ अनाज धोते देखा। पूछने पर महिलाओं ने बताया कि वे सातूं-आठूं पर्व के लिए गौरा-महेश की पूजा हेतु 'बिरुड़' धो रही हैं, जिसके पुण्य से संतान और सौभाग्य का वरदान मिलता है।

अमुक्ताभरण सप्तमी: संतान की मंगल कामना का दिव्य व्रत (सांतूं)

अमुक्ताभरण सप्तमी का महत्व

अमुक्ताभरण सप्तमी, जिसे 'संतान सप्तमी' या 'मुक्ताभरण सप्तमी' के नाम से भी जाना जाता है, हिंदू धर्म में एक महत्वपूर्ण व्रत है। यह व्रत विशेष रूप से महिलाओं द्वारा अपनी संतान की दीर्घायु, स्वास्थ्य, उन्नति और सुख-समृद्धि की कामना के लिए रखा जाता है। इसके साथ ही, निःसंतान दंपत्ति भी संतान प्राप्ति की अभिलाषा से इस व्रत का पालन करते हैं।

यह पवित्र व्रत प्रतिवर्ष भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को मनाया जाता है। वर्ष 2025 में, अमुक्ताभरण सप्तमी का व्रत शनिवार, 30 अगस्त 2025 को रखा जाएगा।

व्रत का महत्व और मुख्य देवता

इस व्रत के केंद्र में भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा-अर्चना है। 'अमुक्ताभरण' का शाब्दिक अर्थ है 'आभूषणों को न धारण करना' या 'सांसारिक सुखों का त्याग'। यह व्रत संतान के प्रति माता-पिता के निस्वार्थ प्रेम और त्याग को दर्शाता है। मान्यता है कि इस व्रत के पुण्य प्रभाव से संतान पर आने वाले सभी कष्ट दूर हो जाते हैं, उन्हें उत्तम स्वास्थ्य और यशस्वी जीवन का आशीर्वाद प्राप्त होता है।

अमुक्ताभरण सप्तमी की पूजन विधि

इस व्रत की पूजा विधि श्रद्धा और भक्ति भाव से पूर्ण होती है, जिसके मुख्य चरण निम्नलिखित हैं:

संकल्प:

व्रत के दिन प्रातःकाल स्नान आदि से निवृत्त होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करें। इसके बाद भगवान शिव और माता पार्वती का ध्यान करते हुए व्रत का संकल्प लें।

पूजा की तैयारी:

पूजा स्थल पर एक चौकी रखकर उस पर लाल वस्त्र बिछाएं। भगवान शिव और माता पार्वती की प्रतिमा या चित्र स्थापित करें। एक कलश में जल भरकर उस पर आम के पत्ते और नारियल रखकर स्थापित करें।

पूजन:

धूप-दीप प्रज्वलित कर भगवान शिव और माता पार्वती का षोडशोपचार (सोलह प्रकार से) पूजन करें। उन्हें चंदन, रोली, अक्षत, पुष्प, बेलपत्र और मौसमी फल अर्पित करें।

विशेष भोग:

इस व्रत में मीठी पूड़ी या पुए का विशेष महत्व है। इन्हें बनाकर भगवान को भोग लगाया जाता है।

डोर धारण करना:

पूजा के दौरान एक रक्षा-सूत्र (डोर), जिसे हल्दी से रंगा जाता है, की भी पूजा की जाती है। कथा सुनने के बाद व्रती महिलाएं इस डोर को अपनी बांह पर बांधती हैं।

कथा श्रवण:

पूजा का सबसे महत्वपूर्ण अंग व्रत की कथा को सुनना या पढ़ना है। इसके बिना व्रत अधूरा माना जाता है।

आरती और प्रसाद:

पूजा के अंत में भगवान शिव और माता पार्वती की आरती करें और उपस्थित सभी लोगों में प्रसाद वितरित करें।

अमुक्ताभरण सप्तमी व्रत कथा

पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को इस व्रत का महत्व बताते हुए एक कथा सुनाई। नहुष राजा की पत्नी चंद्रमुखी और उनकी सखी, एक ब्राह्मणी रूपमती, ने एक बार सरयू नदी के तट पर कुछ स्त्रियों को इस व्रत का पालन करते देखा। व्रत का महात्म्य जानकर दोनों ने इसे करने का संकल्प लिया, किंतु घर लौटकर राज-पाट के मद में रानी चंद्रमुखी व्रत करना भूल गईं।

मृत्यु के पश्चात, रानी ने वानरी और ब्राह्मणी ने मुर्गी की योनि में जन्म लिया। अगले जन्म में, चंद्रमुखी मथुरा के राजा की रानी ईश्वरी के रूप में जन्मीं और रूपमती ब्राह्मणी भूषणा के रूप में। पूर्व जन्म में व्रत भूलने के कारण रानी ईश्वरी इस जन्म में भी संतान सुख से वंचित रहीं, जबकि भूषणा ने व्रत को याद रखा और उसका पालन किया, जिससे उसे आठ सुंदर पुत्रों की प्राप्ति हुई।

जब रानी ईश्वरी को अपनी भूल का आभास हुआ, तो भूषणा ने उन्हें व्रत की विधि पुनः बताई। रानी ईश्वरी ने पूरे विधि-विधान और श्रद्धा से अमुक्ताभरण सप्तमी का व्रत किया, जिसके प्रभाव से उन्हें भी एक सुंदर पुत्र की प्राप्ति हुई। तभी से यह व्रत संतान की रक्षा और प्राप्ति के लिए अत्यंत फलदायी माना जाता है।

दूर्वाष्टमी व्रत: संतान की दीर्घायु और वंश वृद्धि का पवित्र पर्व (आंठूँ)

दूर्वाष्टमी का महत्व

दूर्वाष्टमी, जिसे 'दुर्वाष्टमी' भी कहा जाता है, हिंदू धर्म का एक महत्वपूर्ण व्रत है। यह पर्व मुख्य रूप से दूर्वा घास (दूब) को समर्पित है और संतान की लंबी आयु, उत्तम स्वास्थ्य और वंश वृद्धि की कामना के लिए रखा जाता है। यह व्रत प्रतिवर्ष भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाया जाता है।

वर्ष 2025 में, दूर्वाष्टमी का यह पवित्र व्रत रविवार, 31 अगस्त 2025 को मनाया जाएगा।

दूर्वाष्टमी का महत्व

हिंदू धर्म में तुलसी, पीपल और बेलपत्र की तरह ही दूर्वा घास को अत्यंत पवित्र और पूजनीय माना गया है। यह भगवान गणेश को विशेष रूप से प्रिय है और इसके बिना उनकी पूजा अधूरी मानी जाती है। दूर्वाष्टमी का व्रत करने से परिवार में सुख, शांति और समृद्धि का वास होता है। ऐसी मान्यता है कि जो भी महिला इस दिन श्रद्धापूर्वक दूर्वा की पूजा करती है और व्रत रखती है, उसकी संतान को दीर्घायु और सौभाग्य का आशीर्वाद प्राप्त होता है। इस व्रत के पुण्य प्रभाव से जीवन के सभी कष्ट दूर होते हैं।

मुख्य पूजित देवता

इस व्रत के केंद्र में दूर्वा घास का पूजन है। इसके साथ ही, इस दिन भगवान शिव, माता पार्वती और भगवान गणेश की भी विधि-विधान से पूजा की जाती है।

दूर्वाष्टमी पूजा विधि

दूर्वाष्टमी व्रत की पूजा विधि सरल किंतु बहुत फलदायी मानी गई है:

प्रातःकालीन स्नान और संकल्प:

व्रत के दिन सूर्योदय से पहले उठकर स्नान करें और स्वच्छ, विशेषकर लाल वस्त्र धारण करें। इसके बाद हाथ में जल लेकर व्रत का संकल्प लें।

पूजा स्थल की तैयारी:

एक साफ चौकी पर भगवान शिव और गणेश जी की प्रतिमा स्थापित करें।

देव पूजन:

देवताओं को फल, फूल, अक्षत, धूप, दीप, दही और अन्य पूजन सामग्री अर्पित करें। भगवान गणेश को उनकी प्रिय 21 दूर्वा की गांठें अवश्य चढ़ाएं।

दूर्वा का पूजन:

इसके बाद दूर्वा घास का पूजन करें। दूर्वा को हल्दी, चंदन, अक्षत और पुष्प अर्पित करें।

विशेष भोग:

इस दिन मीठे आटे की रोटी, मालपुए या खीर का भोग लगाया जाता है।

दुर्बा या दुबड धारण करना:

पूजा में आठ गांठों वाला एक पवित्र डोर (धागा) रखा जाता है। पूजा और कथा के बाद महिलाएं इस दुर्बा या दुबड को अपने गले में धारण करती हैं ।

कथा श्रवण:

पूजा का सबसे महत्वपूर्ण अंग दूर्वाष्टमी की कथा को सुनना या पढ़ना है।

दान-पुण्य:

पूजा संपन्न होने के बाद ब्राह्मणों को भोजन कराएं और अपनी क्षमता के अनुसार वस्त्र और दक्षिणा दान करें।

दूर्वाष्टमी व्रत कथा

प्राचीन काल में एक साहूकार के सात पुत्र थे। जब उसके सबसे बड़े बेटे का विवाह हुआ, तो विवाह का मुहूर्त दूर्वाष्टमी के दिन का ही निकला। फेरों के समय एक सांप ने आकर दूल्हे को डस लिया और उसकी मृत्यु हो गई। दुर्भाग्य से, साहूकार के सातों पुत्रों का विवाह दूर्वाष्टमी के दिन ही तय हुआ और सभी की मृत्यु सांप के काटने से हो गई।

जब आठवें और सबसे छोटे पुत्र के विवाह की बारी आई, तो उसका मुहूर्त भी दूर्वाष्टमी का ही निकला। साहूकार के घर में शोक का माहौल था। साहूकार की एक बेटी भी थी, जो इस व्रत को पूरी श्रद्धा से करती थी। बारात निकलने से पहले उस बहन ने अपने आठवें भाई और सभी सातों मृत भाइयों के शवों व भाभियों को एक साथ बैठाया।

उसने पूरी विधि-विधान से दूर्वाष्टमी की पूजा की, कथा सुनाई और पूजा में रखे बाजरे का बायना निकाला। उसने अपनी भाभियों से कहा, "हर वर्ष भाद्रपद शुक्ल अष्टमी को यह व्रत किया जाता है।" उसके व्रत के पुण्य प्रभाव और सच्ची श्रद्धा से भगवान प्रसन्न हुए। उसका आठवां भाई सर्प के दंश से बच गया और उसके सातों मृत भाई भी पुनः जीवित हो उठे।

उसी दिन से यह व्रत संतान की रक्षा और परिवार की मंगल कामना के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाने लगा।

पर्व की पारंपरिक रीतियाँ: आस्था और उल्लास का हर कदम

यह उत्सव कई दिनों तक चलता है और हर रस्म का अपना एक गहरा सांस्कृतिक महत्व है।

बिरुड़ पंचमी (उत्सव का आरंभ)

पर्व की शुरुआत भाद्रपद मास की पंचमी को होती है। इस दिन महिलाएँ एक तांबे के पवित्र बर्तन में पाँच या सात तरह के अनाज (सप्तधान्य) जैसे- चना, मटर, गहत, मक्का आदि को पानी में भिगोती हैं। इन भीगे हुए अनाजों को 'बिरुड़' कहा जाता है, जो समृद्धि और उर्वरता का प्रतीक हैं।

खेतों से सजते हैं गौरा-महेश्वर

प्रकृति और आस्था का अद्भुत संगम तब देखने को मिलता है, जब खेतों में लहलहाती फसलों (धान, मक्का, तिल आदि) से ही देवी गौरा और महेश्वर की मनमोहक मूर्तियाँ बनाई जाती हैं। दीदी गौरा को पारंपरिक कुमाऊंनी पिछौड़ा, चूड़ियाँ और श्रृंगार से सजाया जाता है, तो वहीं जीजा महेश्वर को धोती-कुर्ता पहनाकर तैयार किया जाता है।

सातूं (सप्तमी) और आठूं (अष्टमी): पूजा का शिखर

आठूं (अष्टमी): यह पर्व का मुख्य दिन है। गाँव की सभी महिलाएँ और कन्याएँ एक जगह इकट्ठा होकर पूरी श्रद्धा से गौरा-महेश्वर की पूजा करती हैं। पंडित जी कथा सुनाते हैं और पूजा के बाद सभी एक-दूसरे को आशीर्वाद के रूप में 'बिरुड़' देती हैं। 🙏

फौल फटकना: सौभाग्य और खुशियों की बौछार

यह एक बेहद रोचक और मजेदार रस्म है। इसमें एक बड़े कपड़े में बिरुड़, फल और मिठाइयाँ रखकर हवा में उछाला जाता है। सुहागिन महिलाएँ और कुंवारी कन्याएँ इसे अपने आँचल में समेटने की कोशिश करती हैं। मान्यता है कि जिसे यह प्रसाद मिलता है, उसे अखंड सौभाग्य और सुख-समृद्धि का आशीर्वाद प्राप्त होता है।

झोड़ा-चांचरी: लोकगीत और नृत्य का संगम

पर्व के दौरान शामें लोकगीतों और लोकनृत्यों से गुलजार रहती हैं। गाँव के लोग एक साथ मिलकर झोड़ा, चांचरी जैसे पारंपरिक नृत्यों पर थिरकते हैं और अपनी सुख-समृद्धि की कामना करते हैं। यह दृश्य सामुदायिक एकता की एक खूबसूरत मिसाल पेश करता है।

गंवार सिवाना: बेटी की भावभीनी विदाई

पर्व के अंत में, अष्टमी के कुछ दिनों बाद, एक शुभ दिन देखकर पूरे गाजे-बाजे और धूमधाम के साथ गौरा-महेश्वर की मूर्तियों को पास के मंदिर में ले जाकर स्थापित कर दिया जाता है। इस रस्म को 'गंवार सिवाना' कहते हैं, जो एक तरह से मायके से बेटी (गौरा) की अपने पति (महेश्वर) के साथ विदाई का मार्मिक प्रतीक है।

निष्कर्ष

सातूं-आठूं केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि कुमाऊं की संस्कृति, प्रकृति-प्रेम और पारिवारिक मूल्यों का जीवंत प्रतिबिंब है। यह पर्व हमें सिखाता है कि आस्था केवल मंदिरों में नहीं, बल्कि हमारे रिश्तों, हमारी फसलों और हमारे समुदाय के सामूहिक उल्लास में भी बसती है। यह उत्तराखंड की वह अनमोल धरोहर है, जो आज भी पहाड़ों में अपनी पूरी जीवंतता के साथ साँस ले रही है।

🌟 ब्लॉगर 🌟
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